गोस्वामी तुलसीदास जयंती विशेष

🌿🌼 गोस्वामी तुलसीदास जयंती विशेष 🌼🌿

मित्रों, आज गोस्वामी तुलसीदास जयंती है। तुलसी कृत श्रीरामचरित मानस भारतीय संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है। उत्तर भारत में रामायण के रूप में कई लोगों द्वारा प्रतिदिन पढ़ा जाता है। अवधी भाषा में रची गयी रामचरित मानस सोलहवीं शताब्दी में तुलसीदास द्वारा रची गयी रचना है। 

तुलसीदास बहुत ही उदार थे। किसी के मुख से राम नाम निकल जाये तो वे उस पर बहुत प्रसन्न होते थे।

🌿🌼 तुलसीदास ऋषि वाल्मीकि के ही अवतार थे इसका उल्लेख भविष्योत्तर पुराण में भी मिलता है। उसमें एक श्लोक है-
  
वाल्मीकिस्-तुलसीदासः कलौ देवि भविष्यति।                   
रामचन्द्रक- थामेतां भाषाबद्धां- करिष्यति॥

इस श्लोक का अर्थ यह है कि शिवजी पार्वती जी से कहते हैं कि हे देवि

वाल्मीकि कलियुग में तुलसीदास के रूप में अवतार लेंगे और सरल देशज भाषा रामकथा लिखेंगे।

एक उल्लेख यह भी मिलता है कि स्वयं ब्रह्मा ने वाल्मीकि से कहा था कि आप कलियुग में पुन:अवतार लीजिएगा और रामकथा को नये ढंग से सहज-सरल भाषा में गायेंगे।

जब सम्पूर्ण भारत में इस्लाम का प्रचार-प्रसार हो रहा था, धर्मांतरण का बोलबाला था, तुलसीदास ने श्रीराम के सुराज्य के अर्थ को समझाने हेतु रामकथा को जनमानस की भाषा में कहने का बीड़ा उठाया। उन्होंने इसके लिए अवधी भाषा को चुना। वह अयोध्या में रहते थे और उन्होंने अयोध्या में ही इस ग्रन्थ को रामनवमी के दिन लिखना प्रारम्भ किया। उन्होंने अपने रामचरित मानस ग्रंथ में भी इसका उल्लेख इस तरह किया है-

संवत् सोलह सौ इकतीसा। कहहुं कथा प्रभु पद धर सीसा । नौमी भौमवार मधुमासा। अवध पुरी यह चरित प्रकाशा ॥

पुण्यपुरी काशी से प्रातःस्मरणीय गोस्वामी तुलसीदासजी का अत्यन्त घनिष्ठ और अभिन्न सम्बन्ध रहा है। उनके जीवन का अधिकांश समय यहाँ रामकथा के वक्ता, साहित्यप्रणेता तथा साधक के रूप में व्यतीत हुआ। यहाँ उन्होंने पन्द्रह वर्ष तक शेष सनातनजी से वेद- वेदांग का अध्ययन भी किया था। काशी में ही उन्हें हनुमान्जी के दर्शन हुए, जिसके फलस्वरूप भगवान् श्रीराम के दर्शनका मार्ग प्रशस्त हुआ। यहाँ के प्रह्लादघाट, असीघाट, तुलसीघाट और गोपालमन्दिरसे वे विशेषरूपसे जुड़े रहे। प्रह्लादघाटपर वे अपने मित्र पं० श्रीगंगारामजी ज्योतिषीके यहाँ रहे, असीघाटपर रहते हुए उन्होंने शरीरत्याग किया और गोपालमन्दिर की वाटिका-गुफा में रहकर 'विनय-पत्रिका' की रचना की। यों बारह हनुमान्-मन्दिरों की स्थापना के कारण उनका सम्बन्ध अन्य मुहल्लों या क्षेत्रोंसे भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं रहा। काशी में श्रीराम का चरित्र रामलीला के माध्यम से जन- जनतक पहुँचाने का श्रेय तुलसीदासजीको ही है। यहाँ श्रीकृष्ण और नागनथैयाकी प्रसिद्ध लीला भी उन्हींकी देन है। मानसरोवरके निकट उनको काकभुशुण्डिजी के दर्शन हुए और तभीसे उन्होंने काशीमें रामकथामृत-पान कराना आरम्भ किया।

प्रह्लादघाटपर निवास करते हुए उनमें कवित्व शक्ति प्रस्फुटित हुई और वे संस्कृतमें पद्यरचना करने लगे, किंतु दिनमें वे जो पद्य रचते, रात में लुप्त हो जाते। यह नित्यकी घटना थी। एक सप्ताह इसी तरह बीता। आठवें दिन भगवान् शंकरने उन्हें स्वप्न में आदेश दिया कि तुम अपनी भाषामें काव्य-रचना करो। गोस्वामीजी की निद्रा भंग हो गयी और वे उठ बैठे। उन्होंने शिव-पार्वतीको अपने समक्ष उपस्थित पाया और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। शिवजी बोले- तुम अयोध्या में रहते हुए भाषामें रामकाव्य की रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी रचना 'सामवेद' के समान फलवती होगी। इतना कहकर श्रीगौरीशंकर अन्तर्धान हो गये। शिवादेशके अनुसार गोस्वामीजी अयोध्या चले गये और वहाँ उन्होंने 'श्रीरामचरितमानस' की रचना की। तदनन्तर काशी लौटकर शिव-पार्वती को 'मानस' सुनाया।

यहाँ गोस्वामीजीके 'श्रीरामचरितमानस' की मूल
प्रति विश्वनाथ-मन्दिर में रखी गयी। प्रातः मन्दिर के पट खुले तो देखा गया - पुस्तकपर लिखा है- 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' और नीचे भोलेनाथ शंकर के हस्ताक्षर हैं। उस समय उपस्थित जनोंने ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्' की ध्वनि भी सुनी। जब काशीके पण्डितों ने सुना कि ऐसी घटना हुई तो वे उद्वेलित हो उठे, उनके मनमें ईर्ष्या होने लगी।

है वे तुलसीदासजीकी निन्दा करने लगे और 'मानस' को नष्ट करनेका उपक्रम भी। इसे गायब करनेके लिये दो चोर भेजे गये। चोरों ने देखा कि तुलसीदासजी की कुटिया के बाहर श्याम और गौरवर्ण के दो अत्यन्त सुन्दर वीर धनुष-बाण लिये पहरा दे रहे हैं। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि पवित्र हो गयी, वे चोरी छोड़कर भगवद्भजन करने लगे।

तुलसी भरोसे राम के, निर्भय होकर सोय। 
अनहोनी होनी नहीं, होनी होए सो होए॥

तुलसीदासजी ने अपने ग्रन्थ के कारण प्रभु को कष्ट हुआ जान अपना सारा सामान लुटा दिया और ग्रन्थकी मूल प्रति अपने मित्र टोडरमल के पास रख दी। इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी। उस प्रतिलिपिसे अन्य प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं। ग्रन्थका द्रुतगतिसे प्रचार होने लगा। यह देखकर पण्डितोंसे फिर नहीं रहा गया और उन लोगोंने श्रीमधुसूदन सरस्वतीजीसे ग्रन्थपर अपना मन्तव्य देनेका अनुरोध किया। श्रीमधुसूदनजीने ग्रन्थावलोकनके पश्चात् अपनी हार्दिक प्रसन्नता व्यक्त की और लिखा-

आनन्दकानने ह्यस्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः ।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता ।।

भाव यह कि इस काशीरूपी आनन्दवन में तुलसीदास चलता-फिरता तुलसीका पौधा है। उसकी कवितारूपी मंजरी बड़ी ही सुन्दर है, जिसपर श्रीरामरूपी भँवरा सदा मँडराया करता है।

काशीके पण्डितों को इतनेसे भी सन्तोष नहीं हुआ और उन्होंने दूसरी चाल चली। भगवान् विश्वनाथ के मन्दिरमें उनके समक्ष सबसे ऊपर वेद, उसके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे 'श्रीरामचरितमानस' रखा गया। मन्दिर बन्द कर दिया गया। प्रातःकाल मन्दिर खुलने पर देखा गया कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा है। अब तो पण्डितों के सिर शर्मसे झुक गये। उन लोगोंने तुलसीदासजी से क्षमा-याचना की।

इतना ही नहीं, जब तुलसीदासजी असीघाटपर निवास कर रहे थे कि एक दिन रात्रि में कलियुग मूर्तरूप धारणकर उनके पास आया और उनको त्रास देने लगा। तुलसीदासजी ने हनुमान्जीका ध्यान किया। उन्होंने तुलसीदासजी को विनय के पद रचने के लिये कहा। परिणामतः गोस्वामीजी ने गोपालमन्दिर में रहकर 'विनय पत्रिका' की रचना की और उसे प्रभुके चरणों में समर्पित कर दिया। भगवान् श्रीराम ने उसपर अपने हस्ताक्षर करके तुलसीदासजी को निर्भय कर दिया।

तुलसीदासजी की अपनी नाव थी और वे काशीवास करते हुए उसीसे गंगाजी के उस पार नित्य शौचादि के निमित्त जाया करते थे। निवृत्त होनेपर शेष जल वे एक पेड़ में डाल देते थे। एक दिन जल नहीं बचा, जिससे पेड़में डालना सम्भव न हो सका। गोस्वामीजी पेड़के निकटसे लौट रहे थे कि उस निर्जन स्थानसे आवाज आयी- आज तो मैं प्यासा ही रह गया। सुनते ही तुलसीदासजी चौंके, उन्होंने चतुर्दिक दृष्टि दौड़ायी, किंतु उनको वहाँ कोई नहीं नजर आया। उन्हें आश्चर्यचकित देख स्वरमें और भी स्पष्टता आयी, जिससे गोस्वामीजीको यह समझते देर न लगी कि इस वृक्षमें किसी प्रेतका वास है, जिसकी पिपासा आज शान्त नहीं हुई है। अपवित्र जलसे प्रेतादि योनियाँ तृप्त होती हैं, ऐसी प्रसिद्धि है। इसी कारण रोज तुलसीदासजी के जलसे उस प्रेत की तृप्ति होती थी। प्रेतकी व्याकुलता देख गोस्वामीजी गंगाजल ले आये और उन्होंने उसे पेड़में डाल दिया। प्रेत केवल तृप्त ही नहीं हुआ, अपितु उसने गोस्वामीजी से कुछ माँगने का आग्रह किया। गोस्वामीजी को तबतक अपने इष्टदेव श्रीराम के दर्शन नहीं हुए थे और वे बोले- मुझे श्रीराम के दर्शन करा दो। प्रेत बोला- मैं इतना समर्थ होता तो प्रेतत्व से अपने को मुक्त कर लेता, किंतु तुमको एक युक्ति बतलाता हूँ। कर्णघण्टापर सायंकाल नित्य रामकथा होती है, जिसमें हनुमान्‌जी भी आते हैं और एक कोने में वृद्ध कोढ़ी ब्राह्मण के रूपमें उपस्थित रहते हैं, ताकि उनको कोई छू या पहचान न सके।

गोस्वामीजी असीघाट लौटे और उन्होंने कर्णघण्टा स्थित रामकथास्थलका पता लगाया। वहाँ प्रेत के कथनानुसार वस्तुतः हनुमान्जी उक्त रूपमें बैठे थे। गोस्वामीजी ने कथामृत का पान किया और कथासमाप्तिके क्षणों की अत्यन्त उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगे। उनको विश्वास हो गया कि प्रभु श्रीरामके दर्शन अब हो जायँगे।

कथा समाप्त हुई और हनुमान्रूपी वे वृद्ध ब्राह्मण सबको प्रणामकर दक्षिण दिशाकी ओर चल पड़े। तुलसीदासजी उनके पीछे हो लिये। काफी दूर पहुँचने पर वे हनुमान्जी के श्रीचरणों पर गिर पड़े और बोले- एक प्रेतने मुझे बताया है कि आप हनुमान्जी हैं और श्रीरामके दर्शन कराने में सक्षम हैं। हनुमान्जी बोले- तुम चित्रकूट पहुँचो, वहीं तुम्हें श्रीराम मिलेंगे। तुलसीदासजी चित्रकूट गये और वहाँ उनको श्रीरामके दर्शन हुए। इधर तुलसीदासजी को राम-मिलन का उपाय बताकर हनुमान्जी अन्तर्धान होने लगे। गोस्वामीजी ने उनसे अपना विग्रह वहाँ बनानेकी प्रार्थना की। हनुमान्जी यह सुनकर भूमिसात् हो गये। गोस्वामीजी रातभर उस स्थानकी मिट्टी खोदते रहे। अन्त में उनको हनुमान्जी की मूर्ति मिली, जिसे उन्होंने वहीं वृक्ष के तले स्थापितकर पूजन-अर्चन किया। तबसे यह क्रम अखण्डरूप से चला आ रहा है। वह मूर्ति और कोई नहीं, संकटमोचन ही हैं।

प्रह्लादघाट के निवासी पं० श्रीगंगारामजी काशिराज के राजज्योतिषी थे। मित्रता के कारण गोस्वामी तुलसीदासजी उन दिनों वहीं रहते थे। एक बार काशिराज के यहाँ कोई घटना घटी, जिसके विषय में गंगारामजी से पूछा गया।

गंगारामजी ने तुलसीदासजी से जिज्ञासा की। गोस्वामीजी ने 'श्रीरामशला का प्रश्नावली' की रचना की और उनका समाधान कर दिया। काशिराज के दरबार में गंगारामजी ने जब काशिराज के प्रश्न का उत्तर दिया और वह सही निकला तो वे उनके द्वारा बारह सौ स्वर्ण मुद्राओं से पुरस्कृत किये गये। पुरस्कारकी राशि लाकर उन्होंने गोस्वामीजी के श्रीचरणोंमें रख दी। तुलसीदासजी ने बहुत मुश्किल से उसे स्वीकार तो कर लिया, किंतु उसके सदुपयोगकी योजना बनाने लगे।

मित्रवर गंगारामजी ज्योतिषी से मिले बारह सौ स्वर्ण मुद्राओं से गोस्वामीजी ने काशी में बारह हनुमान्-मन्दिरों की स्थापना करायी थी, जिनमें संकटमोचन मुख्य है। अन्य मन्दिरों में वृद्धकाल, राजमन्दिर, पंचगंगा, कर्णघण्टा, नीचीबाग, मणिकर्णिकाघाट, हनुमान्घाट, तुलसीघाट, भदैनी, नरिया और हनुमान्फाटक स्थित हनुमान्जीकी मूर्तियाँ उल्लेख्य हैं, जिनकी अपनी महिमा है। ये सभी जाग्रत् स्थान हैं। सभी मन्दिरोंमें नित्य, विशेषरूपमें मंगलवार तथा शनिवारको भक्तजन भारी संख्यामें पहुँचते हैं। सभी मूर्तियाँ दक्षिणाभिमुखी हैं। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि शिवनगरी काशी में तुलसीदासजीको असीम संघर्षका सामना करना पड़ा, किंतु श्रीरामके प्रति उनकी भक्ति तथा निष्ठामें तनिक भी कमी नहीं आयी और उन्होंने यहाँ रामभक्ति की अमृतधारा बहाकर सबको धन्य और कृतकृत्य कर दिया। हम कभी उनसे उऋण नहीं हो सकते और विश्व की ऐसी कोई शक्ति नहीं जो उनके यशको धूमिल कर सके। 

श्रीराम तथा हनुमान्जी के ऐसे आदर्श अनन्य भक्त तुलसीदासजी को बारम्बार प्रणाम !

आप सबका गोस्वामी तुलसीदास जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏
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